13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जालियाँवाला बाग में गोली काण्ड और नेताओं के गिरफ्तारी के विरुद्ध एक शान्ति सभा का आयोजन किया गया था। सभा स्थल पर उपस्थित अंग्रेज जनरल ‘ओ डायर’ ने बिना कोई पूर्व सूचना या चेतावनी के भीड़ पर गोली चलवा दीया था जिसमे करीब 1000 लोग मारे गए थे। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 10 मिनट तक चली गोलीबारी में करीब 379 व्यक्ति मारे गए और 1200 घायल हुए। कांग्रेस ने जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड की जाँच हेतु मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में एक समिति की स्थापना की थी।
जलियांवाला बाग नरसंहार (1919)
महाराजा रंजीत सिंह के दरबारी पंडित जाला द्वारा जलियांवाला बाग को एक बगीचे के रूप में विकसित किया गया। जो उनके नाम से जाना जाने लगा। कांग्रेस द्वारा 8 अप्रैल (1919) ई० को एक हड़ताल का आह्वान किया गया जिसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। हिंसक स्थिति को देखते हुए असैनिक सरकार ने प्रशासन की बागडोर बिग्रेडियर जनरल डायर के अधीन सैनिक अधिकारियों के सुपुर्द कर दी।
डायर ने न केवल सार्वजनिक बैठकों पर ही रोक लगाई बल्कि महत्त्वपूर्ण राजनैतिक नेताओं को जेल में बंद कर दिया। इस अशांत परिस्थिति में नियमों की खुले आम अवज्ञा करते हुए जलियांवाला बाग में 23 अप्रैल को एक सार्वजनिक बैठक का आयोजन किया गया जिसमें बाग में काफी संख्या में लोग एकत्रित हुए। स्थिति की सूचना मिलते ही डायर वहां पहुंचा तथा बिना किसी पूर्व चेतावनी के भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। लोगों की व्यग्र भीड़ भागने के प्रयास में सभी निकास द्वारों की तरफ बढ़ी लेकिन उन पर सामने से गोली चलाई जा रही थी, करीब 20,000 लोग गोलियों की चपेट में आ गए। गोलियां लगभग 10 से 15 मिनट तक चलती रहीं। गोलियां तभी रुकीं जब वे समाप्त हो गईं।
यह नरसंहार एक अकेली घटना नहीं थी, बल्कि थोड़े कम परिणाम की समान नृशंसता पंजाब में कई स्थानों पर दोहराई गई। दूसरी तरफ इससे स्वतंत्रता संग्राम को आश्चर्यजनक प्रोत्साहन मिला। हजारों निरक्षर निष्पक्ष जनता राजनैतिक आंदोलन के भंवर में कूद पड़ी। इस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले लिया।
जलियांवाला बाग हत्याकांड – एक नज़र
👉 अमृतसर के जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल 1919 को (बैशाखी का दिन) किचलू, सत्यपाल की गिरफ्तारी के विरूद्ध एक शांतिपूर्ण सभा का आयोजन किया गया।
👉 इस समय पंजाब का लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल ओ डायर था।
👉 सभा स्थल पर मौजूद जनरल डायर ने बिना किसी सूचना के भीड़ पर गोली चलवा दी, जिसमें करीब 1000 लोग मारे गये।
👉 इस हत्याकांड के विरोध में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने नाइट की उपाधि वापस कर दी। वायसराय की कार्यकारणी के सदस्य शंकर नायर ने त्यागपत्र दे दिया।
👉 सरकार ने हत्याकांड की जांच के लिए हंटर आयोग गठित किया।
👉 इसमें पाँच अंग्रेज तथा तीन भारतीय (चमन लाल सीतलवाड़, साहबजादा सुलतान अहमद तथा जगत नारायण) सदस्य थे।
क्या था रौलेट एक्ट (1919) का काला क़ानून
सन् 1917 ई० में सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता में क्रांतिकारी गतिविधियों की देख-रेख के लिए एक समिति गठित की गई। इस समिति की सिफारिशों पर ‘एनार्किकल एंड रिवोल्यूशनरी क्राइम्स एक्ट‘ 1919 (अराजकता तथा क्रांतिकारी अपराध विधेयक) लागू किया गया। जिसका लोकप्रिय नाम रौलेट एक्ट था। समिति ने सभी गैरकानूनी तथा खतरनाक गतिविधियों के दमन के लिए सरकार को शक्तिशाली बनाने की सिफारिश की। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए कानून की लंबी प्रक्रिया को छोटा करने में स्वयं को समर्थ बनाने का एक बिल पास किया। केंद्रीय विधायी परिषद में सभी दलों के चुने गए 22 भारतीय सदस्यों ने इस बिल का विरोध किया, हालांकि 35 सरकारी सदस्यों के इसके पक्ष में मत देने से यह बिल पास हो गया जिनमें एकमात्र भारतीय शंकर नायर थे, जो वायसराय के कार्यकारी परिषद के सदस्य थे।
काला विधेयक (ब्लैक एक्ट) के रूप में घोषित इसका सभी जगह विरोध किया गया। 6 अप्रैल, 1919 ई० को एक अखिल भारतीय हड़ताल का आह्वान किया गया जो सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत का संकेत था। पूरे देश में इस विधेयक की जन अस्वीकृति पाने के लिए बैठकें की गईं। लेकिन दुर्भाग्यवश पंजाब, गुजरात तथा बंगाल में कई हिंसक घटनाएं हो गईं। अत्यंत दुःखी होकर गांधी ने स्वीकार किया कि बिना पूर्व तैयारी के इस आंदोलन को शुरू करने में उन्होंने ‘हिमालय के समान भूल’ की थी तथा इसे वापस लेने का निश्चय किया लेकिन इस रौलेट सत्याग्रह ने इससे जुड़ी हुई कई घटनाओं को जन्म दिया जिसके कारण जलियांवाला बाग नरसंहार तथा उसके बाद की घटनाएं हुईं।
संक्षेप में जाने रौलेट एक्ट कानून
👉 बढ़ती हुई क्रांतिकारी गतिविधियों को कुचलने के लिए सरकार को रौलेट समिति के सुझावों पर रौलेट एक्ट या द अनार्किकल एण्ड रिवोल्यूशनरी क्राइम एक्ट 1919 बनाया।
👉 इसके तहत अंग्रेज सरकार जिसको चाहे बिना मुकदमा चलाए जेल में बंद कर सकती थी। इसे बिना वकील, बिना अपील, बिना दलील का कानून कहा गया।
👉 स्वामी श्रद्धानन्द ने 30 मार्च 1919 को दिल्ली में आंदोलन की कमान संभाली।
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